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यत्स्थो दी॒र्घप्र॑सद्मनि॒ यद्वा॒दो रो॑च॒ने दि॒वः । यद्वा॑ समु॒द्रे अध्याकृ॑ते गृ॒हेऽत॒ आ या॑तमश्विना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yat stho dīrghaprasadmani yad vādo rocane divaḥ | yad vā samudre adhy ākṛte gṛhe ta ā yātam aśvinā ||

पद पाठ

यत् । स्थः । दी॒र्घऽप्र॑सद्मनि । यत् । वा॒ । अ॒दः । रो॒च॒ने । दि॒वः । यत् । वा॒ । स॒मु॒द्रे । अधि॑ । आऽकृ॑ते । गृ॒हे । अतः॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥ ८.१०.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:10» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:34» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

राजा का कर्तव्य कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे गुणों के द्वारा प्रजाओं के मन में व्यापक ! प्रजानियुक्त हे पुण्यकृत राजा और अमात्यवर्ग ! आप दोनों इस समय (यद्) यदि (दीर्घप्रसद्मनि) राजकीय महाभवन में (स्थः) विराजमान हों (यद्वा) यद्वा (दिवः) क्रीड़ा के (अदः+रोचने) रोचन=प्रकाशमान गृह में अर्थात् क्रीड़ागृह में विराजमान हों (यद्वा) यद्वा (समुद्रे) समुद्र में (अध्याकृते) सुनिर्मित (गृहे) गृह में हों, कहीं पर हों (अतः) इस स्थान से आप (आयातम्) हमारे निकट अवश्य आवें ॥१॥
भावार्थभाषाः - सब कार्यों को छोड़ राजा स्वबलों के साथ प्रजा की ही रक्षा करे। राजभवन में या क्रीड़ास्थान में या अतिदूर अगम्य स्थान में वहाँ से आकर प्रजा की बाधाओं को दूर करे ॥१॥
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आर्यमुनि

अब सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष का अन्तरिक्षादि ऊर्ध्वप्रदेशों में विचरना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे सेनापति सभाध्यक्ष (यत्) यदि (दीर्घप्रसद्मनि) दीर्घसद्मवाले देशों में (यद्, वा) अथवा (अदः, दिवः, रोचने) इस द्युलोक के रोचमान प्रदेश में (यद्, वा) अथवा (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (अध्याकृते, गृहे) सुनिर्मित देश में (स्थः) हों (अतः) इन सब स्थानों से (आयातम्) आएँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव स्पष्ट है अर्थात् याज्ञिक लोगों का कथन है कि हे सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! आप उक्त स्थानों में से कहीं भी हों, कृपा करके हमारे विद्याप्रचार तथा प्रजारक्षणरूप यज्ञ में आकर हमारे मनोरथ सफल करें ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

राजकर्त्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विना=अश्विनौ=प्रजानियुक्तौ पुण्यकृतराजानौ ! युवाम्। दीर्घप्रसद्मनि=प्रकर्षेण सीदन्ति उपविशन्ति प्रसीदन्ति हृष्यन्ति वा मनुष्या यत्र तत् प्रसद्मम्=प्रासादो राजभवनम्। दीर्घं प्रसद्म=दीर्घप्रसद्म। महा= प्रासादस्तस्मिन्। यद्=यदि सम्प्रति। स्थः=विराजमानौ वर्तेथे। यद्वा। दिवः=क्रीडायाः। दिवु क्रीडाविजिगीषादिषु। अदोऽमुष्मिन्। रोचने=दीपने गृहे। क्रीडागृहे स्थ इत्यर्थः। यद्वा। समुद्रे=जलनिधौ। अध्याकृते=अधिकृतनिर्मिते। गृहभवने सम्प्रति वर्तेथे। अतोऽस्मात् स्थानत्रयादपि। अस्मान् आयातमागच्छतम् ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ सभाध्यक्षसेनाध्यक्षयोरूर्ध्वदेशविचरणं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे अश्विनौ ! (यत्) यदि (दीर्घप्रसद्मनि) दीर्घसद्मवति देशे (यद्, वा) यदि वा (अदः, दिवः, रोचने) अमुष्मिन्द्युलोके (यद्, वा) यदि वा (समुद्रे) अन्तरिक्षे (अध्याकृते) सुनिर्मिते (गृहे) सद्मनि (स्थः) भवेतम् (अतः, आयातम्) अतः स्थानादायातम् ॥१॥